नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी | Netaji subhas chandra Boss Biography and birthday special
परिचय | नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी - नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ,जनवरी 1992 में इस महान देशभक्त को भारत के सर्वोच्च सम्मान ' भारत रत्न ' से सम्मानित करने की घोषणा की गई | यद्यपि यह घोषणा काफी विलम्ब से की गई । फिर भी भारतमाता के इस सपूत का सम्मान करना सर्वथा उचित ही है है।नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी | Netaji subhas chandra Boss Biography and birthday special |
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी | Netaji subhas chandra Boss Biography
इनकी जीवनी आत्म - उत्सर्ग की एक ऐसी कहानी है जो निर्जीव एवं हतोत्साहित व्यक्तियों के हृदयों में भी स्फूर्ति , आशा और प्राणों का संचार कर सकती है । देश की स्वाधीनता के संग्राम में अपने जीवन को समग्र न्यौछावर कर दिया । नेताजी सुभाष के पूर्वज प . बंगाल के चौबीस परगना जिले के केदालिया गाँव के निवासी थे । इनका जन्म 23 जनवरी , 1897 को कटक में हुआ था । पिता कटक में सरकारी वकील थे । कटक में ही सुभाष बाबू की प्रारम्भिक शिक्षा - दीक्षा हुई ।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कॉलेज से निकाल दिये गया था?
उक्त प्रोफेसर पर हमला करने के अपराध में आप कॉलेज से निकाल दिए गए । बाद में आप स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रविष्ट हो गए और वहीं से आपने सन् 1919 में दर्शन में प्रथम श्रेणी में बी.ए. उत्तीर्ण किया । इसके वाद केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से भी आपने बी.ए. किया . सुभाष बाबू के पिता राजभक्त व्यक्ति थे . उन्होंने काफी आशाओं के साथ सुभाष बाबू की आई.सी.एस. के लिए भेजा था . सन् 1920 में आई.सी.एस. परीक्षा में चौथे स्थान पर आकर उन्होंने सभी को अचम्भित कर दिया , लेकिन देश की राजनीति में जो उथल - पुथल व्यक्तित्व मची थी और देश के वातावरण में जो देशभक्ति की आँधी चल रही थी , उससे प्रेरित होकर सुभाष बाबू भी राजद्रोही हो गए और आई । सी . एस . की नौकरी छोड़ दी त्यागपत्र देकर आप देशबन्धु की सेना में स्वयंसेवक बन गए । फिर राष्ट्रीय विद्यापीठ में आचार्य और कांग्रेस स्वयंसेवक दल के कप्तान बनाए गए ।सुभाष बाबू का प्रथम बार गिरफ्तारी क्यों हुई?
प्रिन्स ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार के सम्बन्ध में सुभाष बाबू को प्रथम बार गिरफ्तार करके 6 माह की सजा दे दी गई । सन् 1922 में उत्तर बंगाल के बाढ़ पीड़ितों की अद्भुत सहायता करके इन्होंने अपने कौशल का परिचय दिया । आप स्वराज पार्टी के प्रमुख पत्र ' फारवर्ड ' के सम्पादक बनाए गए । सन् 1924 में देशबन्धु जब कलकत्ता के मेयर बने , तब आपको ' चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफीसर बनाया गया । उसी वर्ष आपको बंगाल - ऑर्डिनेन्स के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया । तीन वर्ष के इस जेल प्रवास में क्षय रोग हो जाने के कारण सुभाष बाबू का स्वास्थ्य अत्यधिक गिर गया । सरकार उनके जीवन के साथ कुछ अपमानजनक शर्तों का खेल खेलना चाहती थी , पर सुभाष जैसे स्वाभिमानी देशभक्त के लिए यह असहनीय था । अन्त में हठी सुभाष के आगे उस घुटने टेकने पड़े ।जेल में सुभाष बाबू की यातनाएँ
जेल में सुभाष बाबू को यातनाएँ सहन करनी पड़ीं । पुनः आप रुग्ण हो गए . पुराना क्षय रोग पुनः खड़ा हो गया . सरकार की इस शर्त पर कि वह रिहा होते ही सीधे यूरोप चले जाएं , वह तुरन्त रिहा होते ही अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विट्जरलैण्ड चले गए . तो यह विदेश प्रवास दूसरे रूप में सुभाष बाबू का देश से निर्वासन ही था , यह उस समय और भी स्पष्ट हो गया , जब तीन वर्ष बाद पिता की मृत्यु पर सुभाष बाबू भारत आए , पुलिए द्वारा घेर लिए गए . बड़ी कठिनाई से सुभाष बाबू एक महीने ही घर रह सके . इस एक माह के समय आपने किसी भी राजनीतिक चर्चा में भाग भी नहीं लिया . इस प्रकार सरकार को दिए गए वचन का पालन करके वह पुनः यूरोप लौट गए . इस विदेश यात्रा में वह डी . वेलेरा एक मुसोलिनी से मिले कुछ समय बाद वह विदेश प्रवास से ऊब गए और निश्चय कर लिया कि अब वे विदेश में नहीं रहेंगे . भारत सरकार का कथन था कि यदि भारत में रहना है , तो जेलों में रहो . अन्त में आप स्वदेश के लिए ही चल पड़े . कांग्रेस ने भी एक प्रस्ताव द्वारा सरकार से अनुरोध किया कि सुभाष बाबू को मुक्त कर दें , परन्तु सरकार न नी . बम्बई उतरते ही उनको बन्दी बना लिया गया ।1936 को ' सुभाष दिवस मनाया गया
देश मे 1936 को ' सुभाष दिवस ' मनाया गया , पर सरकार इससे विचलित न हुई . उधर जेल जाते ही सुभाष बाबू की दशा पुनः बिगड़ गई । अन्त में फिर उन्हें छोड़ दिया गया । सारे देश में प्रसन्नता के बादल छा गए . अब रचनात्मक कार्यक्रम का समय आ गया था . कांग्रेस ने काउंसिल प्रवेश स्वीकृत कर लिया था . प्रान्तों में मंत्रिमण्डल बन रहे थे . सुभाष बाबू को इन कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं थी . दूसरी ओर आपका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था . स्वास्थ्य सुधार उन्हें महीने के लिए विदेश जाना पड़ा । यूरोप में ही आपने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति का भंडाफोड़ किया । सन् 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए . उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष का पद सबसे बड़ा सम्मान था , जो भारतीय पुनः दो - ढाई जनता अपने सर्वप्रिय नेता को दे सकती थी ।अग्रगामी दल ' ( Forward Block) की स्थापना
सुभाष बाबू को इससे मर्मान्तक पीड़ा हुई . अन्त में जब समझौते की कोई सूरत न दिखाई पड़ी , तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया । उनके स्थान पर राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष बनाए गए . इस प्रकार अलग होकर सुभाष बाबू ने कांग्रेस के भीतर ही एक ' अग्रगामी दल ' ( Forward Block ) की स्थापना की । इस दल का प्रमुख उद्देश्य कांग्रेस की वैधानिकता की भावना को तिलांजलि देना था . सुभाष बाबू कांग्रेस की दक्षिणपंथी नीति से सदैव असंतुष्ट रहते थे . अग्रगामी दल की स्थापना सुभाष बाबू की पराजय का प्रतिफल नहीं था . वह अपने संगठन को सदैव वामपंथीय रखना चाहते थे । अगला कांग्रेस अधिवेशन रामगढ़ में का आयोजन किया , जो अपूर्व ही रहा . इस सम्मेलन में दिए गए सुभाष बाबू हुआ . सुभाष बाबू ने ' समझौता विरोधी सम्मेलन ' कांग्रेस के दक्षिणपंथीय नेता और भी असन्तुष्ट हो गए और सुभाष बाबू पर यह दोष लगाकर के व्याख्यान से कि उन्होंने कांग्रेस के विरोध में एक नया दल खड़ा किया है , उनको कांग्रेस की सदस्यता से भी वंचित कर दिया गया ।यहाँ तक कि बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी को भी कांग्रेस से निर्वासित कर दिया गया . गांधीजी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारम्भ करने की धन में थे . उसी समय सुभाष बाबू ने बंगाली तब तक युद्ध के काले बादल घिर चुके थे . कांग्रेसी मंत्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिए थे . • के लिए आदेश दिया . सरकार सुभाष बाबू के संकेत पर जनता को हालवेल - स्मारक ( कालकोठरी ) को हटा देने एवं सामूहिक आन्दोलन प्रारम्भ करने देखकर भयभीत हो गई और उसने सुभाष बाबू को जेल में डाल दिया .
सुभाष बाबू जेल में नहीं सड़ना चाहते थे . उन्होंने अनशन प्रारम्भ कर दिया . अन्त ने एक महीने के लिए सुभाष बाबू को छोड़ दिया , परन्तु उनके घर पर कड़ा पहरा लगा दिया , फिर भी वह भाग निकलने में सफल हुए . 26 जनवरी , 1941 को उनके गृह - केंद्र से भागने की बात सवको पता चली . दाढ़ी बड़ी करके सुभाष जी कभी बस और कभी रेल द्वारा यात्रा करते हुए पेशावर पहुँच गए ।
दाढ़ी ने पुलिस की आँखों में खूब धूल झोंकी और पठान जियाउद्दीन के वेश में उन्होंने एक काफिले के साथ सीमा पार की और कावुल पहुँच गए . • वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें परेशान किया . जर्मनी जाने के लिए पासपोर्ट उन्हें नहीं मिल रहा था . अन्त में एक व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके आप जर्मनी पहुँच ही गए । वर्लिन में सुभाष बाबु जर्मन सरकार के मान्य अतिथि बने , वर्लिन और रोम रेडियो से आए दिन आपके व्याख्यान आने लगे . हिटलर ने भी सुभाष वाबू का यथेष्ट सम्मान किया । वह मुसोलिनी एवं उसके दामाद काउण्ट सियानों से भी मिले 27 मई , 1942 को हिटलर ने उनसे मुलाकात की व दक्षिण - पूर्वी एशिया जाने की उनकी योजना को समर्थन व सहयोग भी दिया .
जून 1943 में सुभाष वावू टोकियो क्यों आ गए?
जून 1943 में सुभाष वावू टोकियो आ गए थे । 2 जुलाई को आप सिंगापुर पधारे 4 जुलाई को श्री रासबिहारी बोस ने सविधि उन्हें ' आजाद हिन्द फौज ' का सेनापति वना दिया . इसके बाद सारे विश्व ने सुभाष बाबू की संगठन शक्ति का दाँतों तले अंगुली दवाकर अनुभव किया . आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की आजादी का सन्देश लेकर आगे बढ़ने लगे . वातावरण और साधन अनूकूल होने के कारण शीघ्र ही समग्र योजनाएँ फलीभूत होने लगी . आजाद हिन्द फौज का संगठन और कार्यक्रम वड़े - बड़े युद्ध विशारदों को भी विस्मय में डालने वाला था . सुभाष ब्रिगेड , गांधी ब्रिगेड , नेहरू ब्रिगेड और आजाद ब्रिगेड - इस प्रकार ब्रिगेडों में सेना का वितरण किया गया था ।कैप्टन लक्ष्मी की देखरेख में महिलाओं की अलग ' झाँसी रानी रेजीमेन्ट ' थी . बच्चों की अलग टुकड़ी थी . कहा जाता है कि बच्चों का यह दल भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ था . चार 21 अक्टूबर , 1943 को अन्ततः सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी . जापान , जर्मनी , इटली , चीन आदि विभिन्न सरकारों ने आजाद हिन्द सरकार की स्वतंत्र सत्ता को एकमत से स्वीकार कर लिया था . इस सरकार का केन्द्र पहले सिंगापुर बनाया गया . बाद में बर्मा में रंगून को ही अस्थाई सरकार की राजधानी और प्रधान कार्यालय बनाया गया . इसी बीच अण्डमान - निकोबार द्वीप भी स्वतंत्र किए जा चुके थे और उनके नाम क्रमश : ' शहीद ' और ' स्वराज ' द्वीप रखे जा चुके थे . अनुशासित एवं व्यवस्थापूर्ण ढंग से आजाद हिन्द सरकार का कार्य चलने लगा ।
सुभाष बाबू स्वयं भाषणों द्वारा धन एकत्र करते थे । उपहार में आई हुई चीजों की नीलामी द्वारा भी अच्छी - खासी रकम एकत्र की जाती थी . अन्त में रंगून के एक करोड़पति की सहायता से आजाद हिन्द बैंक ' की स्थापना हो गई . आजाद हिन्द फौज के सैनिक आजादी के लिए लड़ते थे , पैसे के लिए नहीं . राष्ट्रीय अभिवादन ( जयहिन्द ) , राष्ट्रीय मुहर , राष्ट्रीय चिह्न ( टीपू सुल्तान का शेर ) , राष्ट्रीय वैज , राष्ट्रीय गीत ( शुभ सुख चैन की बरसा ) और न जाने कितनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति आजाद हिन्द फौज में सर्वथा भारतीय रीति से की गई ।