लाल बहादुर शास्त्री पुण्यतिथि | death anniversary of lal bahadur shastri | राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस

लाल बहादुर शास्त्री पुण्यतिथि | death anniversary of lal bahadur shastri | राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस
 लाल बहादुर शास्त्री पुण्यतिथि | death anniversary of lal bahadur shastri | राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस 


लाल बहादुर शास्त्री का परिचय |death anniversary of lal bahadur shastri

छोटे कद के विशाल हृदय वाले महामानव लालबहादुर शास्त्री अपने अल्पावधि के प्रधानमंत्रित्व काल में जो कार्य कर गए , वह भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे गए हैं । वे भारतीय संस्कृति के इस पावन धरा के सच्चे इंसान थे । उन्हें इस देश की मिट्टी की सोंधी गंध से बेहद प्यार था । प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद लाल किले की प्राचीर से उन्होंने कहा था " हम रहें या न रहें , लेकिन यह झण्डा रहना चाहिए और देश रहना चाहिए . मुझे विश्वास है कि यह झंडा रहेगा . हम और आप रहें या न रहें , लेकिन भारत का सिर ऊँचा होगा . " उनके भाषण बड़े सटीक , सारगर्भित और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत रहे . मानवता के लिए समर्पित शास्त्रीजी भारतीय संस्कृति की अजेय प्रतिमूर्ति थे . जीवन पर्यन्त वे भारतीय आदर्शों का अनुपालन करते रहे . वे भारत की जनता जनार्दन के वास्तव में ही सच्चे प्रतिनिधि सिद्ध हुए थे . सत्य , कर्मठ , संवेदनशील हृदय के स्वामी , निर्धन , बेबस व लाचार लोगों के शुभचिंतक एवं किसानों के मसीहा थे।

लालबहादुर की कथनी और करनी में रत्तीभर भी अन्तर नहीं था

वे अपने वचनों व कार्यों के कारण मशाल की तरह दैदीप्यमान एवं सद्प्रेरक रहे . उस युग पुरुष के प्रधानमंत्री बनने से भारत के प्रधानमंत्रित्व की गरिमा में भी वृद्धि हुई . ऐसा उद्धरण विश्व में कहीं ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा कि एक महान् देश के प्रधानमंत्री के पास उनका अपना निजी मकान न हो . लालबहादुर शास्त्री के सम्पूर्ण जीवनकाल का यदि सर्वेक्षण किया जाए , तो वे निश्चय ही मानवता की कसौटी पर कोहिनूर सिद्ध होंगे . उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर विख्यात राष्ट्रीय चिंतक व प्रखर कवि डॉ . रामधारी सिंह ' दिनकर ' ने ठीक ही कहा था— “ शास्त्रीजी प्रधानमंत्री की गद्दी पर चाहे जैसे भी आए हों , किन्तु उस पद पर काम करके उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि वे इस पद के सर्वथा महान व्यक्तित्व योग्य और अनुकरणीय व्यक्तित्व थे।

अपने आखिरी दिनों में उन्होंने , निर्भीकता , आत्म निर्भरता , सूझबूझ और बहादुरी के जो चमत्कार दिखाए । उन्हें देखकर तो यही कहने को जी चाहता है कि भारत के सभी प्रधानमंत्री अगर लालबहादुरजी के समान होते जाएं , तो फक्त 25 वर्षों में यह देश संसार का अग्रणी देश हो सकता है । निश्चय ही शास्त्रीजी ने भारत का सिर ऊँचा किया ।

शास्त्रीजी को भारतीय कृषि की समस्याओं का पूरा ज्ञान था 

वे कृषि उन्नति के लिए सदैव तत्पर रहे . प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने चाहे किसी की भेंट न स्वीकारी हो पर प्रधानमंत्री से मिलने गए । किसान की पोटली को उन्होंने सहेज कर स्वीकारा , भारतीय किसानों के प्रति वे बहुत चिंताग्रस्त रहते थे । देश की सुरक्षा के साथ खाद्यान्न की आत्म निर्भरता की ओर संकेत करने वाला “ जय जवान जय किसान " उनकी अपनी इसी सोच का प्रतीक है । देश की सुख समृद्धि एवं राजनीति की सुदृढ़ता तथा सीमा सुरक्षा , शस्त्रों के बलबूते ही नहीं , बल्कि कृषक और श्रमिकों पर ही आधारित था । भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए किसी ने सच ही कहा है के हल में छिपी है शक्ति तोप - बंदूकों की . 

शास्त्रीजी का जन्म परिचय

शास्त्रीजी का जन्म 2 अक्टूबर , 1904 को मुगलसराय में एक निर्धन परिवार में हुआ था .। उनके पिता मुंशी शारदा प्रसाद मुगलसराय की एक कायस्थ पाठशाला के सामान्य अध्यापक थे । लालबहादुर शास्त्री की मात्र डेढ़ वर्ष की अल्पायु में ही पिता का साया उठने से उनकी विधवा माँ रामदुलारी पर पहाड़ टूट पड़ा . रामदुलारी अपने बच्चों ( लालबहादुर व उनकी दो बहनों ) को लेकर अपने पुश्तैनी मकान में रहने रामनगर चली आईं जहाँ उन्होंने बड़ी कठिनाई और गरीबी झेलकर बच्चों का लालन - पालन किया . स्वभावतः लालबहादुर शास्त्री को बचपन से ही गरीबी की मार की भयंकरता का बोध हो गया था . स्कूल के रास्ते में नदी पार करने के लिए नाव वाले को देने के लिए पैसे के अभाव में वह गंगा तैरकर पार करने का साहस जुटा लेते थे . उन्हें अपनी पढ़ाई में व्यवधान कतई पसंद नहीं था , किन्तु 17 वर्ष की अल्पायु में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर शास्त्रीजी को स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सात बार जेल यात्रा करनी पड़ी , जहाँ उन्हें लगभग 9 वर्ष कारावास की यातनाएँ झेलने का कटु अनुभव हुआ . उन्होंने 1926 में काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की . पत्रकार स्व . बनारसीदास चतुर्वेदी ने शास्त्रीजी के बारे में विचार प्रकट किए थे ..... " सबसे अधिक आकर्षण गुण , जो उनमें मैंने पाया , वह था साधारण - से - साधारण कार्यकर्ता के व्यक्तित्व का सम्मान और उसके हृदय को ग्रहण करने के लिए निरंतर प्रयत्न। उनके चरित्र का यह एक स्वाभाविक गुण था . "।

शास्त्रीजी के राजनेतिक विकास एवम् सहयोग

शास्त्रीजी ने उत्तर प्रदेश के कांग्रेस आंदोलन में सक्रिय रहकर कई पद सँभाले और निष्ठा । लग्न व कुशलता से अपने दायित्व का निर्वाह किया । वे 1935 में प्रदेश कांग्रेस के मंत्री बने . 1937 में वह उत्तर प्रदेश व्यवस्थापिका के सदस्य चुने गए . पहले मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव बनाए गए . तत्पश्चात् उन्हें पुलिस व परिवहन मंत्री बनाया गया . 1951 उन्हें राज्य सभा के सदस्य होने पर परिवहन और रेलवे मंत्री के महत्वपूर्ण पद का दायित्व सौंपा गया . ज्ञातव्य है कि उनके मंत्रित्वकाल में एक आकस्मिक रेल दुर्घटना हुई , तो उस दुर्घटना पर अपने को नैतिक रूप से उत्तरदायी मानकर 1956 में उन्होंने रेलवे मंत्री के पद को ही तिलांजलि दे दी . उनकी नैतिकता और चारित्रिकता वह कांग्रेस के महामन्त्री बने .

महान् व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें 1957 में पुनः

परिवहन मंत्री का पद सौंपा गया . तत्कालीन प्रधानमंत्री पं . जवाहरलाल नेहरू ने तो मन ही मन उन्हें अपना उत्तराधिकारी मान लिया था . सन् 1958 में उद्योग मंत्री और 1961 में स्वराष्ट्र मंत्री का दायित्व उन्हें सौंपा गया . वे नेहरू मंत्रिमण्डल में ध्रुव तारे की तरह दैदीप्यमान थे . नेहरू के निधन के बाद सर्वसम्मति से उन्हें राष्ट्र का प्रधानमंत्री बनाया गया , जबकि 1962 में चीन के हाथों पराजय की ग्लानि से राष्ट्र अपमान का घूँट पी रहा था . हालांकि शास्त्रीजी का प्रधानमंत्रित्वकाल मात्र डेढ़ वर्ष रहा था और इस स्वल्पकाल में अनेकानेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी थीं , जिनमें प्रमुखतः असमी बंगाली दंगा , पंजाब के कठोर मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों की , कश्मीर के हजरतबल ' पवित्र बाल ' का मसला , खाद्य और वित्तीय संकट के विकराल झंझट के साथ पाकिस्तान से छिड़ा हुआ युद्ध आदि थीं । शास्त्रीजी किंचित भी विचलित नहीं हुए . उन्होंने इन सभी समस्याओं को चुनौती बतौर स्वीकारा और उनके अनुकूल ही अपने को ढालते हुए दृढ़ता और साहस का अपूर्व परिचय दिया .

11 जनवरी राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस

11 जनवरी राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस है।  यह मानव तस्करी के अपराध के बारे में जागरूकता बढ़ाने का दिन है, जिसे अमेरिकी विदेश विभाग "दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता आपराधिक उद्योग" कहता है।  यह मानव तस्करी के संकेतों और लक्षणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने का भी दिन है, जिसमें जबरन श्रम, यौन तस्करी और बाल तस्करी शामिल हो सकते हैं।  यह यह जानने का भी दिन है कि हम मानव तस्करी को रोकने के लिए क्या कर सकते हैं, जिसमें बोलना, बोलना और कानून प्रवर्तन से संपर्क करना शामिल हो सकता है।

मानव तस्करी आधुनिक समय की गुलामी है जिसके बारे में हम सभी को इतिहास की कक्षा में पढ़ाया जाता है।  यह संयुक्त राज्य अमेरिका में होता है — और यह यहीं हमारे अपने समुदायों में होता है।  यह तस्करों द्वारा जबरन मजदूरी, यौन दासता और/या व्यावसायिक शोषण के लिए कमजोर लोगों का शोषण है।  अवैध व्यापार करने वाले अपने पीड़ितों को नियंत्रित करने और उनके साथ छेड़छाड़ करने के लिए धमकियों, बल और अन्य प्रकार के जबरदस्ती का उपयोग करते हैं।

मानव तस्करी का अपराध किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति की आधुनिक समय की गुलामी है।  यह ज़बरदस्ती श्रम से लेकर यौन शोषण तक, गंभीरता में भिन्न होता है, लेकिन अंतर्निहित धागा जबरन श्रम है।  मानव तस्करी निम्नलिखित सहित कई रूप ले सकती है: शोषण, जबरन श्रम, यौन शोषण, अनैच्छिक दासता और बाल तस्करी।  संयुक्त राज्य अमेरिका में मानव तस्करी का सबसे आम रूप बंधुआ मजदूरी है।

शास्त्रीजी की दृढ़ता और आत्मविश्वास

शास्त्रीजी की दृढ़ता और आत्मविश्वास ने ही भारत की शीर्ष राजनीति को अमरीका द्वारा प्रतिमाह अन्न देने की दादागीरी जैसी पेशकश पर तो वे तिलमिला उठे थे , किन्तु उनकी वाणी संयत रही - पेट पर रस्सी बाँधो , साग - सब्जी ज्यादा खाओ सप्ताह में एक बार शाम को उपवास रखो . हमें जीना है , तो इज्जत से जिएंगे वरना भूखे मर जाएंगे . बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत अच्छी रहेगी . ऐसे थे उस स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त के विचार , सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति शास्त्रीजी ने विदेश जाने पर भी अपने स्वदेशी परिधान बंद गले के कोट और धोती का परित्याग नहीं किया . वे स्वाभावतः अल्पव्ययी भी थे . उनकी आदर्शवादिता के संदर्भ में एक प्रसंग का उल्लेख करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा है -

सन् 1936 की खटना

सन् 1936 की बात है . उन दिनों शास्त्रीजी इलाहाबाद के म्यूनिस्पल सदस्य निर्वाचित हो चुके थे . सदस्य की हैसियत से उन्हें इलाहाबाद इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट का ट्रस्टी होने की भी मान्यता थी . इलाहाबाद इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट ने टैगोर टाउन की नई विकास योजना में भूमि का विकास कर कई प्लॉट तैयार किए थे . ट्रस्टी को अधिकार था कि आयुक्त महोदय की अनुमति से किसी भी प्लॉट की नीलामी बोल सकते थे . एक बार उनके मित्र ने स्वयं ट्रस्टी थे। शास्त्रीजी से बिना परामर्श किए उनकी अनुपस्थिति में आयुक्त महोदय से अनुमति लेकर एक प्लॉट अपने लिए और एक प्लॉट शास्त्रीजी के नाम अधिकृत करा लिया . शास्त्रीजी को बाहर से लौटने पर अपने मित्र की इस स्वार्थपरता का पता चला । तो वे बड़े दु : खी हुए उन्होंने वह सौदा तुरन्त निरस्त कराया और मित्र से बोले में ' सार्वजनिक कार्यकर्ता की हैसियत से हमें परिग्राही नहीं होना चाहिए . यह मिशनरी भावना के साथ मेल नहीं खाता . ट्रस्टी की हैसियत से मैं लाभ उठाना नहीं चाहता । हमने गांधीजी को भी वचन दिया है कि हम गृह और सम्पत्ति अर्जित नहीं करेंगे , चाहे हमारे बाद हमारे बच्चों को अनाथ की गणना में आना पड़े . " नहीं की थी . उनकी हमेशा यही कोशिश रही कि गांधीवादी विचारों एवं नेहरू के आधुनिक महात्मा गांधी की अपरिग्राही भावना से वचनबद्ध होकर उन्होंने गृह और सम्पत्ति अर्जित दृष्टिकोणों में संतुलन बनाए रखें ।

अपने आप में शास्त्री संकोची और अन्तर्मुखी थे

अपने आप में शास्त्री संकोची और अन्तर्मुखी थे । उनमें निःस्वार्थ भावनाएँ असीम थी . संभवतः नेहरूजी ने उनकी अटूट निष्ठा , निःस्वार्थ ईमानदारी और दृढ़तापूर्ण विश्वास को देखकर ही उत्तराधिकारी के रूप में कर्तव्यपरायणता , स्वीकार किया होगा . भारत - पाक युद्ध में उन्होंने विजयश्री का सेहरा पहनाकर पराजित भारत को ग्लानि और कलंक से मुक्त कर दिया . वे देखने में तो कुसुम से कोमल थे , लेकिन नाजुक स्थिति का सामना करने के लिए वे वज्र से कठोर हो उठते थे . उनकी मुस्कान के सम्मोहन में विधकर मोरारजी देसाई को भी कहना पड़ा था- “ मैं पुरुष हूँ और शास्त्रीजी दिव्य हैं . " पुरुष कोई भी राष्ट्र विशिष्ट प्रकृति अथवा स्वभाव , धर्म की पहचान बना लेता है ।

जैसे इंगलैण्ड : कूटनीति के लिए , फ्रांस : कला के लिए , अमरीका : वाणिज्य और विज्ञान के लिए , जापान : तकनीकी विकास के लिए , इसी प्रकार अध्यात्म और समन्वयवादी प्रकृति , भारत की पहचान बन चुकी है . विदेश यात्रा पर जाने से पूर्व शास्त्रीजी से चूड़ीदार पजामा और अचकन पहनने का अनुरोध किया गया था , किन्तु वह भारतीय परिधान धोती की पहचान को नहीं छोड़ सके थे .

शास्त्रीजी भारतीय संस्कृति के जीते - जागते प्रतीक

शास्त्रीजी भारतीय संस्कृति के जीते - जागते प्रतीक थे - शास्त्रीजी . गीता के निष्काम कर्मयोग का अक्षरशः पालन करने वाले शास्त्री ने इस गरीब देश के लिए अपने स्वास्थ्य की किंचित भी चिन्ता नहीं की . दो बार हृदय का दौरा पड़ने पर भी वे अपने प्रधानमंत्रित्व के कठिन दायित्व से नहीं डिगे . 10 जनवरी , 1966 में हुआ ताशकंद समझौता शास्त्रीजी के जीवन की सफलता का • चरमोत्कर्ष था . युद्धकाल में उनका दृढ़ संकल्प और उन्नत मनोवृत्ति , राष्ट्र शक्ति का परि चायक थी . " हमने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी .

निष्कर्ष और शास्त्रीजी का निधन

11 जनवरी , 1966 को इस महान् पुरुष का निधन हृदय गति रुक जाने से हो गया जिसकी क्षतिपूर्ति आज तक सम्भव नहीं हो सकी है । शास्त्रीजी एक महान् आदर्शवादी अन्तर्मुखी , सच्चे राष्ट्र भक्त थे। वाणी की निश्छलता , भावना में कोमलता , कार्यों में सर्वप्रियता तथा व्यवहार में उच्चाशयता के लिए लालबहादुर शास्त्री सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे . युद्ध विराम के बाद उनके शब्द थे शान्ति के लिए पूरी ताकत लगानी है .

पं . सोहनलाल द्विवेदी की कविता की पंक्तियाँ
पं . सोहनलाल द्विवेदी की कविता की पंक्तियाँ उद्धृत करके श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं -

शांति खोजने गया , शांति की गोद सो गया ।

मरते - मरते विश्व शांति के बीज बो गया ॥


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